हाल ही में आईआईटी में पढ़नेवाली एक लड़की के आत्महत्या करने की खबर आई। कारण कि वो मोटी थी। उसे अपना मोटा होना इतना शर्मिंदा करता था कि वो अवसाद में चली गयी। उसका अपनी परीक्षाओं में अव्वल आना भी उसे इस दुःख से बाहर नहीं कर पाया। यानि उसकी बौद्धिक क्षमता शारीरिक आकर्षण से हार गयी। दरअसल, आज हम जिस युग में जी रहे हैं वो एक ऐसा वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है, जहां भौतिकवाद अपने चरम पर है। इस युग में हर चीज का कृत्रिम उत्पादन हो रहा है। ये वो दौर है जिसमें ईश्वर की बनाई दुनिया से इतर मनुष्य ने एक नई दुनिया का ही अविष्कार कर लिया है। वर्चुअल वर्ल्ड। इतना ही नहीं, बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानि आर्टिफिशल इंटेलीजेंस ने भी इस युग में अपनी क्रांतिकारी आमद दर्ज करा दी है। ऐसे दौर में सौंदर्य कैसे अछूता रह सकता था।
इसलिए आज सुंदरता एक नैसर्गिक गुण नहीं रह गया है। यह करोड़ों के कॉस्मेटिक उद्योग के बाजारवाद का परिणाम बन चुका है। कॉस्मेटिक्स और कॉस्मेटिक सर्जरी ने सौंदर्य की प्राकृतिक दुनिया पर कब्जा कर लिया है। आज नारी को यह बताया जा रहा है कि सुंदरता वो नहीं है जो उसके पास है। आज सुंदरता के नए मापदंड हैं। जो स्त्री इन पर खरी नहीं उतरती, वो सुंदर नहीं है। परिणामस्वरूप आज की नारी इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किए गए खूबसूरती के मानकों पर खरा उतरने के लिए अपने शरीर के साथ भूखा रहने से लेकर और न जाने कितने अत्याचार कर रही है, यह किसी से छुपा नहीं है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि खूबसूरत दिखने के लिए महिलाएं उन ब्यूटी पार्लर्स में जाती हैं जिनका संचालन करने वाली महिलाओं का सुंदरता अथवा सौंदर्य के इन मानकों से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं होता।
दरअसल, आज हम भूल गए हैं कि सुंदरता चेहरे का नहीं दिल का गुण है। सुंदरता वो नहीं होती जो आईने में दिखाई देती है, बल्कि वो होती है जो महसूस की जाती है। हम भूल गए हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर का ही हस्ताक्षर है और इस शरीर के साथ-साथ हमारा यह जीवन हमें उस प्रभु का दिया एक अनमोल उपहार। लेकिन आज सुंदरता में पूर्णता की चाह में स्त्री भूल गई है कि अधूरेपन और अव्यवस्था में भी एक खूबसूरती होती है। वो भूल गई है कि ईश्वर की बनाई हर चीज खूबसूरत होती है। कली की सुंदरता फूल से कम नहीं होती और बागीचे की खूबसूरती वन से अधिक नहीं होती। सूर्योदय की अपनी खूबसूरती है तो सूर्यास्त की अपनी। पहाड़ों की अपनी सुंदरता है तो नदियों और समुद्र की अपनी। अगर हमें मोर अपनी ओर आकर्षित करता है तो कोयल भी। वस्तुतः खूबसूरती तो प्रकृति की हर वस्तु में होती है। लेकिन दुर्भाग्यवश हर किसी को दिखाई नहीं देती।
कहते हैं कि सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। इसलिए जिस दिन स्त्री खुद को खुद की नजरों से देखेगी, दुनिया की नहीं, उस दिन उसकी सौंदर्य की परिभाषा भी बदल जाएगी। वो समझ जाएगी कि सुंदर तो ईश्वर की बनाई हर कृति होती है। लेकिन जब किसी वस्तु की सुंदरता के मापदण्ड तय कर दिए जाते हैं या फिर तकनीकी रूप से सुंदरता की बात की जाती है तो इसका मतलब उसके ज्यामितीय रूप से होता है। उसके अंगों के माप से होता है या फिर उसके रंग, उसके भौतिक स्वरूप से होता है। स्त्री को समझना होगा कि ऐसे मापदण्डों के जाल में जो स्त्री अपने शरीर की सुंदरता ढूंढती है, जब वो खुद ही देह से परे अपना अस्तित्व नहीं देख पाएगी तो यह पुरूष प्रधान समाज कैसे देख पाएगा। इसलिए सबसे पहले तो स्त्री को स्वयं को इन मापदण्डों से मुक्त करना होगा। इस दौर में जब पुरुषों के गोरे होने की क्रीमों के विज्ञापनों की बाढ़ आई हो तो उसे अपने सांवले रंग पर गर्व महसूस करना होगा।
इस दौर में जब पुरुषों में अपनी बाइसेप्स, ट्राइसेप्स और ऐब्स का प्रदर्शन करने की होड़ लगी हो, उसे अपने व्यक्तित्व को संवारना होगा। वो जो है, जैसी है, खुद पर नाज करना होगा। उसे याद दिलाना होगा खुद को कि यह वो देश है जहां अगर गौरी हैं तो महाकाली भी हैं। पूजनीय दोनों ही हैं। ये वो देश है जहां नारी केवल स्त्री देह नहीं है। वो शक्ति का केंद्र है। वो शक्ति की देवी है। धन की देवी है। ज्ञान की देवी है। अन्नपूर्णा है। सृजनकर्ता है। वो कोमलता का प्रतीक है तो जन्मदात्री के रूप में सहनशक्ति की पराकाष्ठा है। ये वो देश है जहां सौंदर्य एक भौतिक गुण नहीं एक आध्यात्मिक अनुभूति है। ये वो देश है जहां सुंदरता की परिभाषा ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ है। यानि जो सत्य है, वो शिव है और वो ही सुंदर है। सत्य क्या है, ये शरीर, लेकिन शरीर तो नश्वर है! जी हां, सत्य तो वो आत्मा है जो इस शरीर में निवास करती है। वो अगर सुंदर है तो ये सुंदरता ही सत्य है। इसलिए हमारी संस्कृति में बाहरी गुणों से अधिक महत्व भीतरी गुणों को दिया गया है। यही कारण है कि शास्त्रों में तन से अधिक मन की सुंदरता को महत्व दिया गया है। इसलिए जिस दिन स्त्री खुद को पहचान लेगी वो सौंदर्य के मौजूदा मानकों को अस्वीकार करके सुंदरता की अपनी नई परिभाषा गढ़ेगी।
डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)