माहवारी के डिबेट को फैशनेबल बनाना चाहती हैं ब्रांडेड नैपकीन कंपिनयां – अंशु गुप्ता
8 जुलाई, 2018 को पटना म्यूजियम के सभागार में एक्शन मीडिया और नव अस्तित्व फाउंडेशन के द्वारा तीसरे बिहार डायलॉग 3 का आयोजन किया गया। आयोजन की शुरूआत रैमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित और कपड़ों पर काम करने के लिए प्रसिद्ध अंशु गुप्ता, समाजसेवी, पदमश्री सुधा वगीज, यूनिसेफ की व्यवहार परिवतन संचार विशेषज्ञ मोना सिन्हा, महावीर कैंसर संस्थान की एसोसिएट डायरेक्टर डॉ मनीषा सिंह, साइकोलॉजीस्ट, डॉ बिंदा सिंह, दूरदर्शन पटना की कार्यक्रम निदेशक रत्ना पुरकायस्था, जीविका की सुश्री सौम्या और अन्य गणमान्य अतिथियों के उपस्थिति में दीप जला कर किया।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अंशु गुप्ता ने कहा कि माहवारी केवल महिलाओं से जुड़ा विषय नहीं है बल्कि सारे हयूमन का विषय है। यह हमारी आधी से ज्यादा आबदी से जुडा मुददा हैं । आज देश में जब सबको दो वक्त की रोटी नसीब नही हो पाती तो कपड़े और पैड कैसे नसीब हो सकते हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह एक फैशनेबल विषय बनकर न रह जाएं। अंशु गुप्ता ने कहा की इसे सिफ सैनेटरी वितरण के साथ ही दूर नही किया जा सकता। इसके लिए जरूरी है तीन महत्वपूण कदमों उपलब्धता, अफडिबलिटी और जागरूकता पर काम करने की। गूंज के काम के बारे में बताते हुए उन्होंनें कहा कि आजकल कप के प्रयोग की चर्चा आम है लेकिन भारत और खासकर बिहार जैसे राज्य के लिए जहां सैनेटरी नैपकीन नहीं उपलब्ध हैं इसकी बात बेमानी है। कॉटन नैपकिन को ज्यादा व्यवहारिक बताते हुए उन्होनें कहा कि इन पैडस का डिस्पोजल भी एक समस्या हैं। कुछ लोग दावा करते हैं कि उनकी कंपनी का प्रोडक्ट 80 प्रतिशत बायोडीग्रेडेबल है और 20 प्रतिशत नन बायोडीग्रेडेबल। पैड से ज्यादा आवश्यक है माहवारी के बारे में संवाद स्थापित करना।
पद्म श्री सुधा वर्गीज ने कहा कि उन्होंने महिलाओं को राख और बालू जैसी संकामक चीजों का इस्तेमाल करते देखा है इसलिए सैनेटरी नेपकिन दे देने मात्र से इन चीजों पर बेहतर काय नहीं किया जा सकता, जरूरी है जागरूकता की। माहवारी के दौरान महिलाओं के अशुद्ध होने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है बल्कि यह सिर्फ समाज में सदियों से चली आ रही परंपरा ही इसकी मुख्य वजह है।
डॉ रत्ना पुरकायस्थ ने इस संबंध में मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मीडिया का काम समाज को आइना दिखाने का होता है तो जरूरी है कि माहवारी जैसे विशयों पर भी जागरूकता फैलाइ जाए। सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ मीडिया और सरकार इन मद्दों पर सही कदम उठाए। पहले के लोगों अवैज्ञानिक तरीकों से तथ्यों को देखते थे. हमने बहुत तरक्की कर ली है, इसी के साथ हमें अपनी सोच भी बदलनी चाहिए
वहीं महावीर कैंसर संस्थान की एसोसिएट डायरेक्टर डॉ मनीषा सिंह ने कहा कि यह एक शारीरिक बदलाव है जो हार्मोनल गोथ की वजह से माहवारी के रूप् में परिवतित हो जाता है। हॉमोन बढने की वजह से खून के रिसाव के साथ जरूरी पोषण तत्वों का भी रिसाव होता है। जिसके कारण पेट दद, झूझलाहट और षारिरिक कमजोरी जैसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं। उन्होंने कहा कि अगर हम सैनेटरी पैड का इस्तेमाल साफ-सुथरे तरीकों से करें तो गर्भाशय कैंसर जैसे भयानक बीमारियों से चालीस फीसदी तक निजात पा सकते हैं। इस दौरान ज्यादा पानी पीने की भी सलाह दी।
यूनिसेफ की व्यवहार परिवर्तन संचार विशेषज्ञ मोना सिंहा ने पैडमैन फिल्म के मैसेज के बारे में बात करते हुए कहा कि इस विषय पर संवाद के साथ ही इससे जुडी उत्थान योजनाओं का होना भी अति आवश्यक है। इसकी शुरूआत हमें घर से करनी होगी। हमारे समाज में माहवारी से जुड़े कुछ मिथ हैं जो लंबे वक्त से मौजूद हैं. जैसे पीरियड्स के दौरान महिलाओं का अछूत हो जाना, पूजा घर में ना जाने की इजाजत, बाल नहीं धोना, स्कूल नहीं जाना, अचार नहीं छूना, कुछ हद तक नहाने से भी परहेज।
मनो चिकित्सक डॉ बिंदा सिंह ने कहा कि महिलाओं को अवषेशित कम्पल्सिव डिजिज का सामना करना पड़ता है। माहवारी समस्याएं माहवारी की वजह से न होकर अंधविश्वासों के कारण और बढती जाती है। जीविका की सुश्री सौम्या ने कहा कि जागरूकता का घर-घर होना जरूरी है न कि बाहर। उन्होंने कहा कि बिहार में जीविका 80 लाख महिलाओं के साथ काम कर रही हैं। इस अवसर पर माहवारी से संबंधित राहुल वर्मा निर्देशित हैप्पी पीरियड नामक फिल्म भी दिखाया गया। साथ ही इस अवसर पर प्रेरणा प्रताप ने माहवारी पर लिखी अपनी कविता भी लोगों को सुनाइ।
कार्यक्रम के दौरान मंच संचालन एक्श्न मीडिया की ओर से मधुरिमा राज ने किया। नव अस्तित्व फाउंडेशन की ओर से अमृता सिंह और पल्ल्वी सिन्हा ने सभी अतिथियों को शाल और प्रतिक चिहन देकर सम्मानित किया।