बाढ़ और सुखाड़ पर बिहार डायलाग 1

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सरकार की प्राथमिकता में हो बाढ़ नियंन्त्रणडॉ दिनेश कुमार मिश्र

बाढ़ से उत्तर बिहार और सुखाड़ से दक्षिणी बिहार पीड़ित रहता है। औसतन हर साल 18 जिलों में तो बाढ़ आती ही है, किसी किसी साल तो ऐसा भी हुआ है कि सूखा घोषित हुआ हो और फिर बाढ़ आ गई। भारत में बाढ़ का असर झेलने वालों की लगभग 22% आबादी बिहार में बसती है। इस लिहाज से देखा जाए तो बिहार के लिए बाढ़ एक बड़ी समस्या है। पूरा देश पानी की कमी और जरूरत पर यदा-कदा चर्चा करता है। बारिश में मुंबई के डूबने की ख़बरें भी आती हैं, लेकिन बिहार की बाढ़ के हिस्से में अनदेखी ही आती है।  ऐसे में पटना के विकास प्रबंधन संस्थान, बिहार सरकार और एक्शन मीडिया के संयुक्त तत्वावधान में पहले बिहार डायलाग का आयोजन  3 मई २०१८ को विकास प्रबंधन संस्थान के सभागार में किया गया.

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध बाढ़ विशेषज्ञ डॉ दिनेश कुमार मिश्र ने कहा कि 1984 को नौहट्टा में बांध टूटा और मुझे एक इंजिनियर की तरह भेजा गया. बिहार में बाढ़ कि समस्या से निजात पाने के लिए नेपाल से 1937 से बात चल रही है जो हमारे प्राथमिकता को दर्शाता है. अनुमानतः 2060 तक गंगा घाटी में पीने के पानी की समस्या शुरु हो जायेगी. हम आज अर्ली वार्निंग सिस्टम की बात कर रहे है उसपर 1966 में सबसे पहले महावीर रावत ने विधान सभा में पूछा था.  हम अब तक इसे नहीं विकसित कर पायें है. बाँध टूटने के बारे में बताते हुए उन्होंने कहाँ कि कई बार तब्बंधो का कटाव लोग स्वयं करते है ताकि बाढ़ कि विभिषिका और उसके द्वारा होने वाले जान और माल का नुकसान कम हो सके. आज के दौर में बात “रेन वाटर हार्वेस्टिंग” तक जाकर बात ठहर जाती है, जो रूप बिहार के लोगों ने बनाया था, वह ‘फ्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम’ था। उन तालाबों (चौर-चौरा) से वो हर साल बाढ़ से निपट लिया करते थे। तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम-से-कम करना जानते थे। एक दिन राजनीतिज्ञों को लगा कि इन तालाबों को सुखा कर इनकी जमीन में खेती की जाए तो बेहतर होगा। वो कई साल बाद इसी खेती की जमीन पर अपार्टमेंट-शौपिंग काम्प्लेक्स बनाने का इरादा कर चुके होंगे। पता नहीं क्यों स्थानीय लोगों ने तालाबों के ख़त्म होने पर क्या होगा ये नहीं सोचा। या शायद सोचा और कहा भी हो और बड़े लोगों ने उनकी सुनी ही नहीं। ये दोनों चीज़ें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

बाढ़ अतिथि नहीं

“बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं।” हवाई दौरे होते हैं और फिर सब अगली बाढ़ तक के लिए भूल जाते हैं। बाढ़ की वजह से कोशी को “बिहार का शोक” कहने से पहले ये याद रखना चाहिए कि बिहार के यहाँ होने से पहले से कोशी यहीं थी। बाढ़ आपके घर, गाँव, मोहल्ले, शहर या राज्य में नहीं आई, आपने बाढ़ के रास्ते में आकर अपना घर बना लिया है।

इसकी समस्या हल क्यों नहीं होती इसे समझने के लिए हम एक विदेशी घटना भी देख सकते हैं। अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने जब ऑस्ट्रेलिया पर कब्ज़ा ज़माना शुरू किया तो वो अपने साथ कुछ खरगोश ले आये। उस दौर तक ऑस्ट्रेलिया में खरगोश नहीं पाए जाते थे। खरगोश अपनी आबादी बहुत तेजी से बढ़ाने के लिए भी जाने जाते हैं। नतीजा ये हुआ कि अंग्रेजों के शिकार का शौक पूरा करने आये खरगोशों ने जल्द ही करीब करीब पूरे ऑस्ट्रेलिया में आफत मचा दी। ये फसलों का नुकसान करते और इन्हें मारने के लिए अलग से शिकारियों को किराए पर लाना पड़ता था।थोड़े ही दिन में ऑस्ट्रेलिया में खेती कर रहे अंग्रेज जमींदारों को ये भी ये समझ में आने लगा कि पैसे लेकर भी ये शिकारी सभी खरगोशों को नहीं मारते।

वो दो चार को जान बूझ कर जिन्दा छोड़ देते थे ताकि साल-दो साल में फिर से खरगोशों की आबादी बढ़ने पर समस्या हो और उन्हें फिर से काम पर बुलाया जाए। अपने एक लेख में भगवान बुद्ध और एक ग्वाले के बीच का संवाद अनुपम मिश्र देते हैं। ग्वाले के घर में किसी दिन भगवान बुद्ध पहुंचे हैं। काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूंटे में बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे। नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी। इसके बाद भगवान बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं।

क्या आज बाढ़ को लेकर इतना निश्चिन्त हुआ जा सकता है?

विकास के नाम पर जो भी किया गया है उस से बाढ़ बढ़ी ही है, कम नहीं हुई। बंगाल में मुख्य इंजीनियर रहे श्री एस.सी. मजुमदार ने भी बंगाल की नदियों पर खूब काम दिया था। उन्होंने भी बार-बार यही कहा था कि इन नदियों को समझो। आजादी के बाद इस क्षेत्र में जब दामोदर नदी पर बांध बनाया जा रहा था तो उसी विभाग में काम कर रहे इंजीनियर श्री कपिल भट्टाचार्य ने भी इन्हीं बातों को लगभग भविष्यवाणी की तरह देश के सामने रखा था। आज भी इन बातों को श्री दिनेश कुमार मिश्र जैसे इंजीनियर शासन, समाज के सामने रख रहे हैं। इस साल बिहार की बाढ़ ने एक बार फिर जोर से कहा है किइन बातों को कब समझोगे। नहीं तो उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों-का-त्यों बना रहेगा। हम उसका उत्तर नहीं खोज पाएंगे।

कोसी को सरकारी भाषा जहाँ “बिहार का शोक” कह देती है, वहीँ लोकभाषाओं में नदियों के लिए कोई दुखदायी नाम ही नहीं होता! लोग मानने लगे हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है। हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं। ज्यादातर नाम नदियों को आभूषणों की तरह श्रृंगार का रूप मानते हैं।

क्या बाढ़ से सिर्फ नुकसान होता है?

बिहार की बाढ़ के बारे में भी लोग सिर्फ नुकसान की ही बातें करते हैं।आमतौर पर जो इलाका सूखा रहता है वहां अचानक काफी पानी आ जाने से हुई जलजमाव की सी स्थिति को बाढ़ कहते हैं। वर्षों पहले इसे सिर्फ समस्या की तरह नहीं देखा जाता था। बाढ़ से हुए जलजमाव के बाद जब पानी उतरता तो वो काफी उपजाऊ मिट्टी पीछे छोड़ जाता था। किसान इस से खुश होता। तालाबों में आ गई मछलियाँ भी भोजन या आय के स्रोत बनातीं तो वो भी ख़ुशी की बात होती थी। मखाने जैसी चीज़ों की खेती के लिए जल जमाव करना नहीं पड़ता, हो जाता था।अब बाढ़ का पानी इतनी तेजी से आता है कि वो अपने साथ एक लाख घर तो (औसतन) हर साल बहा ले जाता है। जो पानी सितम्बर में उतर जाता, वो अब नवम्बर तक ठहरा रहता है।

ये स्थिति तब है जब मखाने-सिंघाड़ा की फसल अच्छी आय देने वाली फसलें हैं। मछलियाँ अच्छी कीमत पर बिकती हैं और वो बाढ़ आने पर तालाबों में मुफ्त उपलब्ध हो जाती थीं। आज बिहार में भी मछलियाँ ज्यादातर आंध्रप्रदेश और दूसरे राज्यों से आती हैं। बाढ़ का आपदा बने रहना कई लोगों के आजीविका के हित से जुड़ा मामला तब है जब विश्व के कई शहर तो बाढ़ में डूबे हैं, वो पर्यटक स्थल बन गए हैं! एक सुप्रसिद्ध गाने “जिहाल मस्ती मुकुल परंजिश” में जो शहर दिखता है वो बाढ़ग्रस्त ही है। आपको इसमें सिर्फ आपदा दिखती है तो इसकी वजह ये भी है कि इसकी मार्केटिंग कुछ इसी तरीके से की गई है।

क्या बाढ़ के फायदे कम होने लगे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि बाढ़ से जिन लोगों को हर साल आय हो रही है वो निजी फायदे के लिए ऑस्ट्रेलिया वाले खरगोश के शिकारियों जैसा बर्ताव करने लगे हैं? अभियंत्रण, विज्ञान, गणित जैसी कई विधाओं में कहते हैं कि अगर समस्या को सही तरीके से परिभाषित कर सको तो समझो समस्या आधी तो सुलझ गई है।क्या हम बिहार की बाढ़ को सही-सही परिभाषित करने कि स्थिति में भी हैं?

तालाबों का संरक्षण है जरुरी

तालाबों के संरक्षण में लगे प्रसिद्ध समाजसेवी नारायणजी चौधरी ने कहा कि तालाबों का सम्बन्ध हमारे जीवन, हमारी संस्कृति से है. फ्रांसिस बुकानन जिन्होंने पूर्णिया गजेटियर तैयार किया था के एक सर्वे  के अनुसार बलुहा घाट में 1807 में 122 प्रकार की मछली की प्रजाति पाई जाती थी जो अब मुश्किल से 50 प्रकार की ही रह गया है. तालाब को जलीय जीव और जलिय विविधता के मदद से मेंटेन कर सकते हैं। दरभंगा के दिग्ग्धी और हरारी नामक तलाबों का उदाहरण देते हुए चौधरी ने कहा कि इनका इतिहास 900 से 1000 साल पुराना है। हमे जरूरत हैं अपने इस समृद्व विरासत को फिर से जीवंत करने की । नई व्यवस्था में तालाबों का मालिकाना हक सरकार का हैं जिसकी बंदोबस्ती की जाती हैं कुछ नए बदलाव कर ऐसी व्यवस्था होना चाहिए जहां तालाबों के प्रबंधन की जिम्मेदारी गांव की हो तब उनके, सरंक्षण के साथ ही उनका प्रबंधन भी आसान होगा। कई पुराने दौर के तालाब खुद नहीं सूखे। उन्हें इंसानी भूख खा गई है। तालाब में पहले कचरा भर भर कर उसे सुखा दो, फिर उसकी जमीन कब्ज़ा कर वहां अपार्टमेंट या शौपिंग मॉल बनवा कर करोड़ों कमाओ। कमाई के लिहाज से ये अच्छा धंधा है! मंदिरों पर सरकारी कब्जे की वजह से मंदिर के तालाब पर कब्ज़ा करना भू-माफिया के लिए और भी आसान है। ऐसी ही बातों की चर्चा के साथ घटते हुए तालाबों और संस्कृति से लेकर पर्यावरण तक पर उनके प्रभाव की चर्चा करते हुए नारायण जी चौधरी ने अपनी बात ख़त्म की।

वार्ता का समन्वयन विकास प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर सुर्यभुषण ने किया. उन्होंने कहा कि विकास की बात बिल्कुल एकांगी नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे समग्र होना चाहिए. उन्होंने वक्ताओं का धन्यवाद देते हुए कहा की ऐसी वार्ताएं और निरंतरता और अंतराल से होनी चाहिए.

 

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