अक्षय कुमार के आजकल चर्चा में हैं। पिछले कुछ दिनों से सरोकार वाली फिल्मों को लेकर भी जनमानस में एक सकारात्मक छवि बनी है। अक्षय के बारे में कहा जाता है कि फिल्मों में आने से पहले वो बैंकॉक में वेटर का भी काम कर चुके हैं। लेकिन मितरों! अक्षय ऐसे पहले अभिनेता नहीं है। फिल्म जगत के अभिनेता-अभिनेत्रियों का वेटरों से पुराना नाता रहा है। मितरों! आज से 100 साल पहले एक अभिनेत्री भी थी जो फिल्मों आने से पहले एक ईरानी रेस्तारा में वेटर ही था।
तो मितरों ये बात 1912 की है। दादा साहब फाल्के अप्रैल 1912 में लन्दन से विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग यूनिट और उसकी तकनीक के साथ भारत लौट कर पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाने में जुटे थे। लेकिन मितरों मुख्य समस्या थी, नायिका की भूमिका। फाल्के चाहते थे की कोई स्त्री ही नायिका की भूमिका करें। उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी कलाकारों से बात की, लेकिन कोई कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं हुई। उस ज़माने में उन्होंने नायिका की खोज के लिए पर्चे भी बटवाए थे लेकिन कोई भी आगे नहीं आया।
अंत में लोगों के सुझाव के बाद उन्होंने कोठे वालियों से भी संपर्क किया लेकिन वहां से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। फाल्के फिल्म के नायिका के तलाश में ही ही थे की उनकी नज़र ईरानी रेस्तरां में काम करने वाले एक रसोइये पर पड़ी। और मितरों, जैसा कि एक फ़िल्मी डायलॉग में कहा गया है, आपके पैर देखे, बड़े हसीन थे! बिलकुल वैसे ही मितरों, जब फाल्के साहब के मितरों की नजर उस बैरे की उँगलियों पर पड़ी, तो वो बोले, इनकी उँगलियाँ देखी? कैसी लम्बी-लम्बी और सुन्दर हैं?
तो मितरों काफी अनुनय विनय के बाद वो फिल्म में काम करने के लिए तैयार हुआ। लेकिन ठीक शूटिंग के वक्त रसोइया अपनी मूंछ साफ़ करवाने में आनाकानी करने लगा। अब बताइये मितरों? क्या किसी नायिका की मूछें होनी चैये? बताइये होनी चैये कि नई होनी चैये? भला मूंछ वाली तारामती कैसी लगती इसकी कल्पना हम आप कर ही सकते हैं। बहरहाल काफी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ़ कराने के लिए तैयार हुआ।
और मितरों वह रसोइया, जो भारत की पहली ‘फीचर फ़िल्म’ की पहली हिरोइन बन रहा था, उसका नाम ‘सालुंके’ था। इस तरह बैरे और रसोइयों का फिल्म जगत से पुराना नाता रहा है मितरों। अगली समस्या राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व की भूमिका थी। इसके लिए भी कोई नहीं मिला तो अपने सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके से अभिनय करवाया। 40 मिनट के इस फिल्म को बनाने में 6 महीने और 27 दिन लगे थे।
धुन्दीराज गोविंद फाल्के (दादा साहब फाल्के) ने फ़िल्म निर्माण, निर्देशन, पटकथा लेखन आदि विविध क्षेत्रों में भारतीय सिनेमा को अपना योगदान दिया था। भारतीय फिल्म सिनेमा के पितामह के नाम से जाने जाने वाले दादासाहब नें 19 साल के लंबे करियर में कुल 95 फिल्में और 27 लघु फिल्मे बनाईं।
फालके के फिल्म बनाने के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’ 2009 में बनी, ‘हरिशचंद्राची फैक्टरी’ 40 वर्षीय नाट्य अभिनेता और निर्देशक परेश मोकाशी की पहली फिल्म है जो ऑस्कर में भारत की ओर से आधिकारिक तौर पर नामांकित हुई है।
और हाँ मितरों, भारत को सिनेमा देखना सिखाने वाले इस महान विभूति को आपको एक और वजह से याद रखना चाहिए। अपने आखरी दिनों में दादा साहब फाल्के बहुत अच्छे हाल में नहीं थे। मूक फिल्मों के बाद ध्वनि वाली फिल्मों के आने से तकनीकीकरण ने भी उनका जीवन बदल दिया। जिस फिल्म कंपनी को वो कभी छोड़कर गए थे, वहीँ उन्हें हज़ार रुपये महीने की तनख्वाह पर नौकरी करनी पड़ी। उनकी मौत के बरसों बाद 1971 में भारत सरकार ने उनका एक डाक टिकट भी जारी किया था। बीमारी से जूझते 73 साल की उम्र में 1944 में उनकी मौत हो गयी।
(तस्वीर उनके लिए गूगल द्वारा 2018 में जारी किये गए डूडल की)