एक गुमनाम कला
जब कई भाषाओँ की लोकोक्तियों में कहा जाता है की “जो होता है अच्छे के लिए होता है” तो ऐसे ही नहीं कहा जाता। बरसों तक दुनिया को मिथिला पेंटिंग नाम की किसी विधा के बारे में पता ही नहीं था। बिहार में 1934 में भयानक भूकंप आया, कई मकान गिर गए। मधुबनी के ब्रिटिश सरकारी अफ़सर विलियम जी. आर्चर जब नुकसान का मुआयना करने निकले तो अचानक टूटे घरों की अन्दर की दीवारों पर उन्हें अनोखी चित्रकला नजर आई। आर्चर कला के पारखी थे, बाद में वो विक्टोरिया एंड अल्बर्ट म्यूजियम में साउथ एशिया की कलाओं के क्यूरेटर भी बने। 1930 के ही दशक में इनमे से कुछ कलाकृतियों की उन्होंने तस्वीरें ली थी। दक्षिण के प्रसिद्ध मॉडर्न आर्ट कलाकारों क्ली, मीरो, और पिकासो की कलाकृतियों से इनकी समानता पर वो काफी अचंभित थे। आखिर 1949 में भारतीय कलाओं की पत्रिका ‘मार्ग’ में वो इस कला की विधा को दुनियाँ के सामने लाये, उनके लेख और तस्वीरों के छपने के बाद इस कला को प्रसिद्धि मिली।
इसके कुछ ही दिन बाद एक दूसरी त्रासदी ने इस कला को आगे बढ़ने का फिर से मौका दिया । 1960 में जब भयानक अकाल पड़ा तो भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड ने मधुबनी इलाके की स्त्रियों को इस कला को कागज़ पर बनाने की सलाह दी। इन्हें बेचकर कुछ आमदनी हो सकती थी । लेकिन ज्यादातर लोग इलाके से पलायन करने में ही रूचि दिखा रहे थे, सिर्फ मधुबनी शहर के आस पास की कुछ महिलाओं ने इसमें रूचि दिखाई। इनमे से ज्यादातर महिलाएं बहुत अच्छी कलाकार थी, जल्द ही इनमे से चार तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों और सांस्कृतिक मेलों में यूरोप, रूस, और अमेरिका में भी भारत का प्रतिनिधित्व करने लगी। इनकी देखा देखी इलाके की हरिजन और दलित महिलाओं ने भी अपनी कला को कागज़ पर उतारना शुरू किया ।
सन 1970 तक इस कला को व्यापक मंच मिल चुका था। भारत की अन्य कलाओं से बिलकुल अलग इस तरीके की कलाकृतियों को ख़रीदने के लिए भी दिल्ली से व्यापारी आने लगे । बहुत कम कीमत पर भारत के प्रमुख देवी देवताओं और रामायण के दो तीन दृश्यों को बड़े पैमाने पर बनाने की बाजार की मांग सामने आई । गरीबी से परेशान कई कलाकारों ने तेज़ी से सिर्फ कुछ ही चित्रों को बार बार बनाना शुरू कर दिया । इस तरह ये मिथिला पेंटिंग की कुछ ख़ास पेंटिंग “मधुबनी पेंटिंग” के नाम से भी जाने जानी लगी । लेकिन कला के दलालों के अलावा भी कला के कई कद्रदानों की नजर अब तक इस पर पड़ चुकी थी । बाजार की तड़क भड़क से दूर कई कलाकार अलग अलग किस्सों को दर्शाते अपनी अपनी कला को निखारने में लगे रहे । आज जिन कलाकृतियों को हम ‘मिथिला पेंटिंग’ के नाम से जानते हैं वो यही हैं ।
मिथिला को सदियों से अपने कवियों, विद्वानों, दार्शनिको के लिए जाना जाता है । लेकिन इनमे से लगभग सभी पुरुष होते हैं। दलित हरिजन महिलाओं के लिए यहाँ का समाज बहुत रुढ़िवादी रहा है । कुछ 50 साल भी पीछे चले जाएँ तो कुछ उच्च वर्ग की महिलाओं को छोड़कर, स्त्रियाँ घरों के बाहर नजर नहीं आती थी । घर के काम काज, बच्चों की परवरिश, और परिवार / मोहल्ले के समारोहों को छोड़कर समाज में उनका योगदान ना के बराबर होता था । चित्रकला भी घर की दीवारों तक ही सिमित थी, कागज पर पेंटिंग बना कर उन्हें बेचने का मौका जब इन्हें मिलने लगा तो उनके लिए एक नया द्वार खुल गया । इस से आने वाले पैसे बड़ा ही मामूली आंकलन है इस कला के स्त्रियों के लिए योगदान में । दरअसल इसने स्थानीय या राष्ट्रिय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यहाँ की महिलाओं को पहचान दिला दी है । यूरोप से लेकर जापान तक इन्हें अब लोक कलाकारों के तौर पर नहीं बल्कि समकालीन चित्रकारों / पेंटर के तौर पर उन्हें जाना जाता है । कल तक जो चित्र अनाम होते थे आज उनपर कलाकार के हस्ताक्षर पहचाने जाते हैं । आर्थिक स्वतंत्रता के साथ साथ उन्हें सफ़र करने का मौका मिलता है, शिक्षा, रेडियो और टेलीविज़न जैसे माध्यमों से पहचान भी होने लगी है । छोटे से समाज से निकलकर दुनियाँ से परिचय कुछ ऐसा ही है जैसे अँधेरे कूएँ से निकलकर समुद्र से मुलाकात होना । स्त्री पुरुष संबंधों की परिभाषा बदलने लगी है, कुछ पुरुष भी इस कला से जुड़े हुए हैं लेकिन अगर कलाकृतियों को देखें तो पुरुषों के चित्र जहाँ अभी भी परंपरागत ही हैं वहीँ कई महिलाएं सामाजिक मुद्दों पर सवाल भी करने लगी हैं ।
इन बदलावों के साथ ही इस इलाके में शुध्तावादियों और आधुनिकतावादियों में चर्चा भी शुरू हो गई है । जहाँ कुछ लोग लोक कला से पौराणिक कथाओं का जाना कला की परंपरा का नष्ट होना है वहीँ कुछ ये भी मानते हैं कि नए अनुभवों, सरोकारों और महिलाओं को मिली नयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इस कला में भी जगह तो मिलेगी ही ! मेरे ख़याल से तो ये फैसला कलाप्रेमियों और दर्शकों पर छोड़ा जाना चाहिए । जो पसंद नहीं आएगा वो खुद ही समय के साथ ख़त्म हो जायेगा।